Video

Thursday, November 26, 2009

सूचना के अधिकार पर अत्याचार?

बिहार सचिवालय

बिहार में सूचना के अधिकार पर जानकारी नहीं मिल रही

सूचना का अधिकार अधिनियम 2005. बिहार में इस क़ानून के तहत सूचना मांगने वाले लोगों पर भ्रष्ट अधिकारियों के अत्याचार का डंडा बरसने लगा है.

यहाँ पंचायत स्तर से लेकर सरकारी विभागों के स्तर तक इस मामले में प्रताड़ना के कई मामले सामने आ चुके हैं.

सरकारी योजनाओं में बरती गई अनियमितताओं को दबाने-छिपाने वाला अधिकारी या कर्मचारी वर्ग यहाँ लोगों के सूचना-अधिकार के ख़िलाफ़ हमलावर रुख़ अपना चुका है.

बिहार में तीन साल पहले इस अधिनियम को लागू करते समय दिखने वाली सरकारी तत्परता की देश भर में सराहना हुई थी.

आज स्थिति उलट गई लगती है. कारण है कि अब इसी राज्य में नागरिकों के सूचना-अधिकार का हनन सबसे ज़्यादा हो रहा है.

हालत यहाँ तक बिगड़ चुकी है कि भ्रष्टाचार साबित कर देने जैसी सूचना मांगने वालों को झूठे मुक़दमों में फँसाया जा रहा है. ऐसे लोगों को जेल भेज देने की भी धमकी दी जा रही है.

सूचना अधिकार क्षेत्र के जाने माने सामजिक कार्यकर्ता और मैगसेसे पुरस्कार प्राप्त कर चुके अरविंद केजरीवाल ने हाल ही में इस बाबत पटना में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार से मुलाक़ात की और उन्होंने हालात में सुधार का अनुरोध किया.

जिस बिहार राज्य में 'जानकारी' नाम से की गई सरकारी व्यवस्था के तहत टेलीफ़ोन पर आवेदन स्वीकार किया जाता हो.

जहाँ मांगी गई सूचना इतने आसान तरीक़े से उपलब्ध कराने की पहल की गई हो, वहाँ अब सूचना के अधिकार की ऐसी दुर्दशा को अरविंद केजरीवाल ने बड़ा ही दुर्भाग्यपूर्ण कहा है.

इस क़ानून के प्रावधानों की सही समझ अभी पूरी तरह न तो लोक सेवकों में है और न ही सूचना मांगनेवाले लोगों में. सबकुछ दुरुस्त होने में कुछ वक़्त लगेगा. जहाँ तक प्रताड़ना कि बात है तो ऐसी निश्चित और सही शिकायत अगर आयोग को मिलेगी तो उसे कार्रवाई के लिए सरकार के पास ज़रूर भेजा जाएगा

अशोक कुमार चौधरी

दूसरी ओर शिकायतों की भरमार से घबराए मुख्यमंत्री ने कुछ फौरी कार्रवाई के निर्देश दिए हैं.

इसी सिलसिले में उन्होंने एक हेल्पलाइन नंबर- 2219435 जारी करते हुए ख़ुद टेलिफ़ोन पर पहली शिकायत (संख्या 001) दर्ज कराई.

टेलिफ़ोन पर मुख्यमंत्री ने लिखाया- मुख्यमंत्री सचिवालय को सूचना मिली है कि वीरेंद्र महतो, ग्राम- कसियोना, पंचायत- करैया पूर्वी, प्रखंड- राजनगर, ज़िला- मधुबनी द्वारा करैया के प्रखंड आपूर्ति पदाधिकारी से जन वितरण प्रणाली की दुकानों में राशन- किरासन आपूर्ति का ब्यौरा माँगा गया था. इस पर उनको धमकी दी गई, जो राजनगर पुलिस थाना में केस संख्या 181/09 दिनांक 10-08-09 दर्ज किया गया है. इस मामले की पूरी जांच करके मुख्यमंत्री सचिवालय को सूचना दी जाए.

समझा जा सकता है कि मुख्यमंत्री ने सार्वजनिक तौर पर एक नरम किस्म की ही शिकायत दर्ज कराई. गंभीर किस्म की शिकायतें तो आम लोगों के बीच जाने पर मिलती हैं.

कहीं मुखिया और पंचायत सेवक, तो कहीं प्रखंड, अनुमंडल और ज़िला स्तरीय पदाधिकारी सरकारी योजना राशि में लूट मचाते हुए मिलते हैं.

लेकिन इन्हें पकड़ेगा कौन? सब जानते हैं कि नीचे से ऊपर तक का सरकारी महकमा लूट में शामिल रहता है.

शिकायत

ऐसे में सूचना के अधिकार के तहत कोई आम आदमी अगर घोटाले का राज़ खोलने वाली जानकारी मांगेगा तो लुटेरों के बीच खलबली होगी ही.

परवीन अमानुल्लाह की राय

परवीन अमानुल्लाह

अगर कोई आम आदमी सूचना पाने के अपने हक़ का डटकर इस्तेमाल करना चाहता है तो उसे डरा-धमका कर ख़ामोश करानेवाले सरकारी अधिकारी फ़ौरन सक्रिय हो जाते हैं. इसलिए दोषी पाए जाने पर भी उन पर सख़्त कार्रवाई नहीं होती. मैंने 45 ऐसे मामलों की जानकारी राज्य सरकार को बहुत पहले दी थी, लेकिन उस पर अब तक कुछ भी नहीं हुआ

राज्य के मुख्य सूचना आयुक्त अशोक कुमार चौधरी फिर भी नहीं मानते कि कोई लोक सूचना पदाधिकारी किसी सूचना माँगने वाले को जेल भेजने की धमकी देता होगा या किसी सरकारी फ़ाइल को ग़ायब करता होगा.

लेकिन उन्होंने कुछ शिकायतों को स्वीकार करते हुए कहा, "इस क़ानून के प्रावधानों की सही समझ अभी पूरी तरह न तो लोक सेवकों में है और न ही सूचना मांगनेवाले लोगों में. सबकुछ दुरुस्त होने में कुछ वक़्त लगेगा. जहाँ तक प्रताड़ना कि बात है तो ऐसी निश्चित और सही शिकायत अगर आयोग को मिलेगी तो उसे कार्रवाई के लिए सरकार के पास ज़रूर भेजा जाएगा."

सूचना अधिकार मामलों से जुड़ी एक गैर सरकारी संस्था की प्रमुख परवीन अमानुल्लाह का कहना है कि भ्रष्ट सरकारी अफ़सरों और कर्मचारियों का ऐसा गिरोह बन गया है, जो इस क़ानून को बेअसर बनाने पर तुला हुआ है.

परवीन कहती हैं, "अगर कोई आम आदमी सूचना पाने के अपने हक़ का डटकर इस्तेमाल करना चाहता है तो उसे डरा-धमका कर ख़ामोश करानेवाले सरकारी अधिकारी फ़ौरन सक्रिय हो जाते हैं. इसलिए दोषी पाए जाने पर भी उन पर सख़्त कार्रवाई नहीं होती. मैंने 45 ऐसे मामलों की जानकारी राज्य सरकार को बहुत पहले दी थी, लेकिन उस पर अब तक कुछ भी नहीं हुआ."

बिहार

पिछले दिनों सूचना अधिकार पर एक सम्मेलन भी हुआ

यहाँ उल्लेखनीय है कि परवीन अमानुल्लाह बिहार के एक बड़े आईएएस अधिकारी अफज़ल अमानुल्लाह की पत्नी हैं.

इन्होंने एक भेटवार्ता में बीबीसी से खुलकर कहा कि राज्य की शासन व्यवस्था में भारी गड़बड़ी है और यहाँ अधिकांश नौकरशाह भ्रष्ट हैं.

मुख्यमंत्री नीतीश कुमार अपने भाषणों में ज़रूर कहते हैं कि लोकतंत्र में जनता ही मालिक है और मालिक की मांगी गई सूचना नहीं देने वाले नौकर यानी अधिकारी बख्शे नहीं जाएँगे.

लेकिन होता है उल्टा. प्रताड़ित जनता हो रही है और नेता-अधिकारी फल-फूल रहे हैं.


    Don't Amend the RTI Fee Rules in Bihar


    Sunday, November 22, 2009


    आनलाइन हस्ताक्षर करके विरोध जतायें
    विष्णु राजगढ़िया

    बिहार में सूचना मांगने वालों को प्रताड़ित करने की काफी शिकायतें आ रही हैं। अब बिहार सरकार ने सूचना पाने के नियमों में अवैध संशोधन करके एक आवेदन पर महज एक सूचना देने का नियम बनाया है। अब गरीबी रेखा के नीचे के लोगों को सिर्फ दस पेज की सूचना निशुल्क मिलेगी, इससे अधिक पेज के लिए राशि जमा करनी होगी। ऐसे नियम पूरे देश के किसी राज्य में नहीं हैं। ऐसे नियम सूचना कानून विरोधी हैं। इससे सूचना मांगने वाले नागरिक हताश होंगे। इससे नौकरशाही की मनमानी बढ़ेगी। इस तरह बिहार सरकार ने सूचना कानून के खिलाफ गहरी साजिश की है। अगर सूचना पाने के नियमों में संशोधन हुआ तो नागरिकों को सूचना पाने के इस महत्वपूर्ण अधिकार से वंचित होना पड़ेगा। एक समय बिहार को आंदोलन का प्रतीक माना जाता था। आज सूचना कानून के मामले में बिहार पूरे देश में सबसे लाचार और बेबस राज्य नजर आ रहा है। वहां सुशासन की बात करने वाले मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने दुशासन की भूमिका निभाते हुए कुशासन को बढ़ाना देने के लिए सूचना कानून को कमजोर किया है।

    इसलिए आनलाइन पिटिशन पर हस्ताक्षर करके अपना विरोध अवश्य दर्ज करायें। इसके लिए यहां क्लिक करें-

    संशोधन के संबंध में विस्तृत जानकारी के लिए इस लिंक पर क्लिक करें

    नीतीश ने सूचना नियम बदले, अख़बारों ने ख़बर गोल की

    19 NOVEMBER 2009

    विदूषकों में नाम न लिखाएं नीतीश जी!

    ♦ विष्णु राजगढ़िया

    Press Releaseसूचना मांगने वालों को प्रताड़ित करने की सबसे ज़्यादा शिक़ायतें बिहार से ही आती रही हैं। अब बिहार सरकार ने आरटीआई फीस नियमावली में संशोधन करके सूचना क़ानून की हत्या कर डाली है। हाल ही में झारखंड सरकार की ऐसी ही एक हास्यास्पद कोशिश को सूचनाधिकार कार्यकर्ताओं ने धूल चटा दी है। बिहार में भी यह कोशिश ज़्यादा दिन नहीं टिकेगी।

    ध्यान रहे कि वर्ष 2005 में संसद द्वारा सूचना क़ानून पारित किये जाने से पहले ही नौ राज्य सरकारों ने सूचना क़ानून लागू कर दिये थे। तमिलनाडु एवं गोवा में 1997, राजस्थान एवं कर्नाटक में 2000, दिल्ली में 2001 में यह क़ानून बना। असम, मध्यप्रदेश एवं महाराष्ट्र ने 2002 तथा जम्मू-कश्मीर ने 2004 में सूचना क़ानून बनाया। इनमें से एक भी राज्य एनडीए के किसी घटक या भाजपा-जदयू शासित नहीं था। इन नौ राज्यों में और फिर केंद्रीय स्तर पर भी सूचना क़ानून लाने का श्रेय कांग्रेस और यूपीए से जुड़े दलों को जाता है। अब कांग्रेस को सूचना क़ानून बनाने का अफ़सोस है क्योंकि इस क़ानून से पहली बार लोकतंत्र के बेचारे नागरिक को एक हैसियत मिल गयी है। वह शासन-प्रशासन की असलियत उजागर करने लगा है। इसीलिए केंद्र सरकार ने सूचना क़ानून में संशोधन करके इसे कमज़ोर करने की कोशिशें शुरू कर दी है।

    दूसरी ओर, बिहार सरकार ने एक कदम आगे बढ़ कर फीस नियमों में अवैधानिक संशोधन किये हैं। इससे पता चलता है कि नागरिकों को सूचना के अधिकार से वंचित करने में आज यूपीए और एनडीए, दोनों में सहमति बन चुकी है।

    17 नवंबर 2009 को पटना में बिहार सरकार के मंत्रिपरिषद की बैठक हुई। बैठक में सूचना का अधिकार संबंधी फीस नियमावली के संशोधन को स्वीकृति दी गयी। इसके अनुसार अब आवेदक को एक आवेदन पर एक ही सूचना उपलब्ध करायी जा सकेगी। आवेदक को सूचना पाने के लिए अपना टिकट लगा एवं पता लिखा लिफाफा भी देना होगा। इसके अलावा बीपीएल सूची में शामिल लोगों को अब दस पेज तक की ही सूचना नि:शुल्क दी जाएगी।

    यह संशोधन पूर्णतया अवैध है। यह सूचना मांगने वाले नागरिकों को परेशान करने की बुरी नीयत से किया गया है। यह सूचना क़ानून के प्रावधानों और भावना के ख़‍िलाफ़ है। बिहार और देश की जनता इसे कदापि स्वीकार नहीं करेगी। सुशासन और विकास पुरुष की श्रेणी में नाम लिखाने की कोशिश में जुटे नीतीश कुमार को पारदर्शिता विरोधी इस संशोधन के कारण विदूषकों की सूची में अपना उल्लेख देखने की नौबत आ सकती है।

    सूचना क़ानून के तहत फीस एवं अपील संबंधी नियमावली बनाने का अधिकार राज्य सरकारों को दिया गया है। लेकिन यह मूल क़ानून के अनुरूप ही होनी चाहिए, न कि इससे प्रतिकूल। कोई भी नियम उसके मूल क़ानून से ऊपर या उसके प्रतिगामी नहीं हो सकता। फिर, जब क़ानून और नियम में विरोधाभास हो, तो क़ानून को ही सर्वोपरि माना जाएगा।

    सूचना क़ानून की धारा 7(5) कहती है – ऐसे व्यक्तियों से, जो गरीबी की रेखा के नीचे हैं, कोई फीस प्रभारित नहीं की जाएगी।

    मतलब साफ है। क़ानून के अनुसार बीपीएल श्रेणी के नागरिकों से सूचना के एवज़ में कोई फीस नहीं ली जाएगी। वह सूचना अधिकतम कितने पृष्ठों तक होगी, क़ानून ने इसकी कोई सीमा तय नहीं की है। लिहाजा, बिहार सरकार द्वारा बीपीएल श्रेणी के लोगों को दस पेज तक की ही सूचना निःशुल्क देने संबंधी नियम बनाया जाना अवैध है। यह सूचना का अधिकार अधिनियम 2005 के प्रावधानों और भावनाओं के प्रतिकूल है। अदालत में इसे चुनौती देकर न्याय की अपेक्षा की जानी चाहिए।

    इसी तरह, एक आवेदन में सिर्फ एक सूचना मांगने संबंधी नियम भी अवैध एवं हास्यास्पद है। सूचना क़ानून के अनुसार सूचना के लिए नागरिक एक लिखित आवेदन देगा। इसमें सूचना की परिभाषा काफी व्यापक एवं विस्तृत है। इसमें आवेदन को मात्र किसी एक सूचना या किसी एक बिंदु तक सीमित करने का कोई प्रावधान नहीं है। लिहाज़ा, कोई भी सरकार अपनी मरजी से सूचना की परिभाषा को संकुचित नहीं कर सकती। यह संशोधन बिहार को सुशासन नहीं बल्कि कुशासन की ओर ले जाएगा। नौकरशाह इस संशोधन की मनमानी व्याख्या करके नागरिकों को अपमानित और प्रताड़ित करेंगे।

    सूचना के एवज़ में फीस लेने का प्रावधान है। लेकिन क़ानून में यह बात स्पष्ट कही गयी है कि यह फीस युक्तियुक्त या तर्कसंगत होनी चाहिए। अनुचित या अतार्किक फीस वसूलने की कोशिश अवैध मानी जाएगी।

    क़ानून की धारा 27 में राज्य सरकार को नियम बनाने की शक्ति दी गयी है। इसमें फीस संबंधी नियम सिर्फ सूचना के लिए आवेदन करने और सूचना के प्रति पृष्ठों के संबंध में लेने की बात कही गयी है। सूचना नहीं मिलने या अधूरी मिलने पर अगर आवेदक को अपील करनी हो, तो इसके लिए कोई फीस नहीं ली जा सकती। प्रथम अपील के संबंध में राज्य सरकार को सिर्फ प्रक्रिया संबंधी नियम बनाने की शक्ति है। इसके लिए वह कोई फीस निर्धारित नहीं कर सकती।

    लेकिन बिहार सरकार ने प्रथम अपील के लिए पचास रुपये की फीस निर्धारित करके सूचना क़ानून का मखौल उड़ाया है। जरा सोचिए, किसी नागरिक को अपील क्यों करनी पड़ रही है? जनसूचना अधिकारी ने उसे वांछित सूचना नहीं दी, इसलिए नागरिक को अपील करनी पड़ रही है। अगर उसे सूचना मिल गयी होती तो अपील नहीं करनी पड़ती। इस तरह, जनसूचना अधिकारी द्वारा क़ानून का पालन नहीं किये जाने के कारण नागरिक को प्रथम अपील करनी पड़ी। ऐसे में उस नागरिक को संरक्षण और सहयोग देने के बजाय उससे पचास रुपये वसूलना निश्चय ही उसे हताश करने की साजिश है।

    डॉ जगन्नाथ और लालू प्रसाद जैसे प्रतापी नेता पशुपालन घोटाले की चक्की में पिस गये। मधु कोड़ा जैसे सौभाग्यशाली मुख्यमंत्री मिनटों में उठाईगीर साबित हो गये। सुशासन लाना हंसी-ठठ्ठा नहीं है नीतीश जी। देखते-ही-देखते दिन लद जाएंगे। सुशासन का ठेका अकेले मत लीजिए। नहीं सकिएगा। भ्रष्टाचार रोकना हो तो बिहार के नागरिकों की मदद लीजिए। सुशासन चाहिए तो आम नागरिक की हैसियत को मत ललकारिए। उसे भी शासन और प्रशासन से जानने और पूछने दीजिए। उसे अवैध नियमों के जाल में मत उलझाइए। उन राज्यों का अनुसरण कीजिए, जो सूचना क़ानून को सरल और जनमुखी बना रहे हैं। महाराष्ट्र से ही कुछ सीख लीजिए। पुणे नगरपालिका में हर सोमवार को कोई भी नागरिक जाकर कोई भी फाइल देख सकता है। उसकी फोटो कॉपी ले सकता है। महाराष्ट्र ज़्यादा दूर लगे तो आप पड़ोसी राज्य झारखंड के एक युवा आइएएस का उदाहरण देख लीजिए। रांची के उपायुक्त केके सोन अपने विभागों की तमाम सूचनाएं सहर्ष देने को तत्पर रहते हैं। उन्हें तो कोई डर नहीं है सूचना क़ानून से।

    अगर आपको अकर्मण्यता और लूटखसोट के उजागर होने का भय नहीं, तो सूचना क़ानून से डरने की ज़रूरत नहीं। नागरिक तो अपने सवालों से आपके सुशासन के रथ को आगे बढ़ाने में ही मदद कर रहे होंगे। अगर आपके पास छुपाने को कुछ नहीं, तो सूचना क़ानून से भय कैसा? यह क़ानून तो पूरे देश में शासन और प्रशासन को पारदर्शी और जवाबदेह बनाने की दिशा में ऐतिहासिक और शानदार सफलताएं हासिल कर रहा है। फुरसत हो तो इन सफलताओं के किस्से पढ़-सुन लें। क़ानून की धारा चार के सभी प्रावधानों का सही अनुपालन हो तो आपकी समस्याएं यूं ही आधी हो जाएंगी। आप जिस सुशासन की बात करते हैं, वह सूचना क़ानून से ही आएगा। वह सुशासन हर नागरिक की सक्रियता से ही आ सकता है। अगर आपके राज्य में सूचना क़ानून की हत्या हुई, तो कुशासन लाकर सुशासन की बात करने वाले विदूषक कहलाने में देर नहीं लगेगी।

    Vishnu Rajgadia image(विष्‍णु राजगढ़‍िया। वरिष्‍ठ पत्रकार। सूचना के अधिकार को लेकर पिछले कुछ वर्षों से सक्रिय। लंबे समय तक प्रभात ख़बर, धनबाद संस्‍करण के स्‍थानीय संपादक रहे। पीके इंस्‍टीच्‍यूट ऑफ मास कम्‍युनिकेशन के डायरेक्‍टर भी रहे। इन दिनों नई दुनिया के झारखंड प्रमुख। उनसे vranchi@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है।)

    http://mohallalive.com/2009/11/19/nitish-government-changed-right-to-information-act/

    Thursday, November 12, 2009

    Bihar: Seek information under RTI and land up in jail

    From Anuja Sipre

    PATNA, NOV 11 -- The Right to Information (RTI) Act has become more of a bane than a boon for the people of Bihar. Most of those who try to seek information under the Act end up landing in trouble for their 'daring act.'


    The situation is such that the Hum Log Trust and the Bihar Right to Information Forum -- the bodies fighting for the cause of information-seekers under the RTI Act -- had to organize a 'people's court' to provide justice to the harassed people.

    There were as many as 49 cases of harassment of people all across the state for seeking information under the RTI Act.

    They narrated their tales of woes in the presence of Parveen Amanullah, joint convener of the Hum Log Trust and the Bihar Right to Information Forum, Arvind Kejriwal, Magsaysay award winner and activist, Prashant Bhushan, Supreme Court lawyer and civil rights activist, and Justice (retd) S N Jha, chairman of the Bihar State Human Rights Commission.

    Kanchan Sahani, a BPL card holder belonging to an extremely backward class, had to spend 26 days in prison after he sought information about the construction of a house for his family under the Indira Awas Yojana.

    A resident of Panapur village in Muzaffarpur district Sahani sought information about his house on November 6, 2006. But the police suddenly arrested him on August 6, 2007 and put him behind the bars in connection with a case of attempt to murder.

    Sahni said he was later released on bail but only after being in prison for no reason at all. Similarly, Akalu of Bhabhua district was rendered homeless when he sought information about the Indira Awas Yojana from the BDO concerned. Amlesh Mahto of Raghopur also lost his house while trying to seek information about the Yojana.

    A physically challenged Birendra Kumar Sah, 40, of Pir Maker village in Saran district, suddenly found himself being implicated in a murder case. His 'crime' was that he had dared to seek information about the proposed appointment of 50 teachers from the officials concerned under the Right to Information Act.

    Birendra said he had submitted an application seeking information about the appointment of 50 teachers in his block on July 10, 2007. But instead of providing information, the mukhiya named him in a murder case in August last year. It was only after the intervention of the Hum Log Trust that the district magistrate of Saran stayed the 'false' case against him.

    Arvind Kejriwal said that Bihar had earned laurels for implementing the Right to Information Act ahead of many other states but it is unfortunate that the information-seekers are being harassed in the state which became a pioneer in arming the people with the right to information.

    S N Jha stated that the commission had asked the chief secretary to take action against the officials who are harassing people for seeking information and submit his report within four weeks.

    Prashant Bhushan was of the opinion that the 'dominance' of the bureaucracy in the state information commission has played a negative role in the implementation of the RTI Act.

    'Strengthen democracy through RTI Act'


    PATNA: Humlog Trust secretary and Bihar Right to Information Manch coordinator Parveen Amanullah on Saturday said that democracy can be strengthened not only by casting vote once in five years, but also through Right to Information (RTI) Act.

    Revival of collapsed systems and sorting out people's problems is possible through this right, she said, adding it is necessary for the common people to properly understand and use their democratic rights and responsibilities and exercise their franchise under the democratic set up. But, she said, the people's democratic responsibilities did not begin or end with casting their votes only since they are also required to nurture the democratic system in the day-to-day functioning.

    She said it is responsibility of the public to ensure that doctors are present in hospitals, teachers in schools, government servants in their offices as well as the maintenance of public buildings and proper sanitation, and proper implementation of old age pension and BPL card schemes for the welfare of the people.

    Tuesday, November 3, 2009

    Anna Hazare, Aamir Khan want Kiran Bedi to hold top RTI job

    THE TIMES OF INDIA
    Abhinav Garg & Anil Singh, TNN 2 November 2009, 10:55am IST

    NEW DELHI/MUMBAI: The issue of who succeeds Wajahat Habibullah as the country's chief information commissioner has taken on an interesting dimension with film star Aamir Khan, social activist Anna Hazare, RTI activist Arvind Kejriwal and a procession of renowned personalities mounting a vigorous campaign for the baton to be handed over to the first woman IPS officer, Kiran Bedi. ( Watch Video ) Hazare, Aamir and a host of eminent persons have written to PM Manmohan Singh as well as Congress chief Sonia Gandhi, making a strong pitch that Bedi had the best credentials for a job that is crucial for promoting transparency in governance. "If you are appointing another person, please let us know how that person is more suitable than Kiran Bedi," says the letter. Signatories include Subhash Chandra of the Zee group, while several other celebrities such as Narayana Murthy of Infosys, are sending their letters on Monday. The letter comes in the wake of fears that the hard-earned, albeit limited, progress on the right to information is endangered with bureaucracy invoking the specious plea of public interest to negate the gains. A recent study showed that less than one-third of RTI applicants got the information they sought. The judiciary is yet to warm up to the idea of public disclosure of assets of judges, and the resistance seems to have encouraged the bureaucracy. As a matter of fact, secretaries of key ministries at the Centre are meeting on Tuesday to discuss whether public servants should be made liable to disclose their assets under RTI Act. The CIC under Habibullah had several run-ins with the bureaucracy as it sought to push the transparency envelope. Though he did not always succeed in the face of entrenched opposition, the country's first chief information commissioner, with access to the top echelons of power, often managed to hold his own. Information rights activists are wary of the bureaucracy seeking to influence the selection process to help install someone as the CIC who will not be a hurdle in their efforts to reclaim lost ground. "We have learnt that the government is appointing a person of its choice as CIC this week without the wide consultation that is needed for it," said Kejriwal, echoing the fear that a determined attempt would be made to roll back the progress in making transparency a right available to every Indian citizen. Obviously, the two information commissioners -- M M Ansari and A N Tiwari -- who are in contention for the job don't inspire much confidence among the activists. They cite the findings of a study analysing the performance of information commissioners to justify their scepticism as well as why they consider Bedi to be the ideal replacement for Habibullah. A national tennis champ, Bedi joined the Indian Police Service in 1972. She received the Magsaysay award in 1994 for her work in prison reforms as inspector-general of police in charge of Tihar jail. Bedi opted for voluntary retirement in 2007 after being overlooked for the post of Delhi police commissioner. The CIC is chosen by a three-member panel comprising the PM, the Leader of Opposition and a Cabinet minister nominated by the PM (Veerappa Moily). The post is at par with that of the chief election commissioner and the term is five years or up to the age of 65. Section 12(5) of the RTI Act states: "The chief information commissioner and information commissioners shall be persons of eminence in public life with wide knowledge and experience in law, science and technology, social service, management, journalism, mass media or administration and governance." To give such persons a fair chance to apply, RTI activists say, the government must cast its net far and wide, all over India and in all walks of life. It must advertise the position, attract a good number of candidates and select the best from among them with proper screening procedures. Hand-picking people from a small inner circle at DoPT, PMO and Central Information Commission, as it is doing now, is a sure way of "defeating excellence, nurturing mediocrity and protecting vested interests" within the administration, say RTI activists. Speaking to TOI from Oman, Bedi said the news that Aamir and Anna Hazare had recommended her name for the post was "interesting". However, the feisty former cop wondered if such recommendations mattered. "I wonder if these letters carry any weight with the government. If the responsibility comes through, I will serve the country but won't take any salary. I am independent since the past two years and don't need any salary from the government. If they still insist, I would like to donate it to my foundation for poor children," Bedi said.
    Topics:
    Aamir Khan Kiran Bedi Social activist Anna Hazare

    Inter-American Court Finds Fundamental Right of Access to Information

    In the first decision of its kind from an international tribunal, the Inter-American Court of Human Rights ruled yesterday that there is a fundamental
    human right to access government information.
    In the case of Claude Reyes and others vs. Chile, the Court found in favor of three environmental activists who in 1998 sought information from the
    Chilean government about a controversial logging project. By failing to provide access to the requested information, the Court held that Chile had
    violated Article 13 of the American Convention on Human Rights, which guarantees freedom of thought and expression.
    According to the Court, Article 13 contains an implied right of general access to government-held information, and States must adopt legal provisions to
    ensure the right is given full effect. The Court specifically ordered Chile to provide the requested information about the Rio Condor logging project or to
    issue a reasoned decision for withholding it, as well as to adopt adequate administrative procedures to protect the right in the future and to train public
    officials to uphold the public's right to information.
    International advocates of transparency in governance and the right-to-know applauded the precedent-setting court decision. "The Court has ruled that
    freedom of information is a fundamental personal, social, and civic right, and a critical component of a full transition to democracy," said Peter Kornbluh
    who directs the Chile Documentation Project at the National Security Archive. According to Helen Darbishire, Executive Director of Access Info
    Europe, the decision "will be invaluable for activists who need government information to defend other human rights, protect the environment, and fight
    corruption." Source:October 12 2006 (http://www.freedominfo.org/news/20061012.htm)

    Bihar

    Monday, November 2, 2009

    Bihar ranks 10th on RTI parameters