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Saturday, April 10, 2010

बिहार के गांवों में स्वराज यात्रा

बिहार

पटना ज़िले के 25 गांवों में स्वराज यात्रा से शुरू हुआ अभियान

गांव में अलख जगाए बिना स्वराज व्यवस्था लागू नहीं हो सकती। इसी विचार के साथ बिहार में सामाजिक कार्यकर्ता परवीन अमानुल्लाह और उनके साथियों ने गांवों में स्वराज यात्रा की शुरूआत की है। पहले चरण मे स्वराज यात्रा पटना ज़िले के पांच प्रखण्डों के 25 गांवों में गई।
यात्रा के दौरान गांव गांव जाकर लोगों की बैठक के लिए आमन्त्रित किया जाता। बैठक में लोगों के सामने स्वराज से सम्बंधित चर्चा की जाती ताकि लोग लोकतन्त्र में अपनी हैसियत को समझ सके, और उसके हिसाब से अपनी भूमिका निभाने के लिए तैयार है सके। पूरी यात्रा के एक गांव में हुई बैठक की बातचीत की बानगी से समझा जा सकता है -

यात्रा निकालने का तरीका

गांव में घूमकर घोषणा:
गांव में चक्कर लगाकर कुछ साथी कार्यकर्ता माइक पर अनाउंसमेट करके आए -
`स्वराज यात्रा आपके गांव में आई है। इसमें कई सामाजिक कार्यकर्ता दिल्ली, पटना से आए हैं और आपके साथ पंचायत में आपके अधिकार के बारे में बात करना चाहते हैं। आपसे अनुरोध् है कि अधिक से अधिक लोग बैठक में पहुंचे…´
थोड़ी ही देर में बैठक में गांव के बहुत से लोग आ गए। इनमें महिलाएं, व्रद्ध, युवा हर तरह के लोग थे लेकिन गांव के नौजवान की एक बड़ी संख्या या तो खेतों पर काम करने गए हुए थे या पटना में नौकरी पर थी अत: नौजवान की संख्या अपेक्षाकृत कुछ कम ही थी। बच्चे भी उत्सुकतावश बड़ी संख्या में इकट्ठा हो गए थे।

(परिचय)
हम कौन हैं और कौन नहीं है
बैठक की शुरूआत हुई। एक कार्यकर्ता ने परिचय देते हुए कहा, `हम लोग आपके गांव में अलग अलग जगह से इकट्ठा होकर, यह स्वराज यात्रा निकालते हुए पहुंचे हैं…´ हम किसी राजनीतिक दल से नहीं आए हैं। न ही हम कोई चुनाव लड़ रहे हैं। न ही हम किसी गांव में किसी उम्मीदवार को पंचायत चुनाव में जिताने के लिए मुहिम चला रहे हैं। हम लोग स्वराज अभियान से आए हैं जो एक जन-अभियान है और किसी राजनीतिक पार्टी से सम्बंधित नहीं है…

(सरकारी पैसे से मेरा रिश्ता)
हम आपके सामने कुछ बातें रखना चाहते हैं… लेकिन उसके पहले आप सब लोगों से एक सवाल है कि आप लोगों में से कौन कौन टैक्स देता है…
(गांव के अधिकतर लोग टैक्स या कर को नहीं समझे)
कार्यकर्ता: तो अच्छा ये बताए कि आपमें से कौन कौन लोग सरकार को पैसा देते हैं… किसी भी तरीके से सरकार को पैसा कौन कौन देता है…
ग्रामवासी: हम लोग कभी कभी देते हैं… जब मालगुजारी देते हैं तब, मकान खेत आदि खरीदते हैं तब देते हैं…
कार्यकर्ता: ये तो ठीक है लेकिन आपको ध्यान नहीं है आप सारे लोग, हर रोज़ सरकार को टैक्स देते है… जब भी आप कुछ खरीदते है जैसे कि माचिस, साबुन, नमक, पेस्ट, दवाई आदि तो उसमें कीमत के साथ साथ सरकार का हिस्सा भी जुड़ा होता है… जैसे कि अगर 5 रुपए की साबुन खरीदते है तो उसमें करीब एक रुपया सरकार को जाता है… तो इस तरह हम सब लोग मिलकर हर रोज़ सरकार को करोड़ों रुपए देते रहते हैं… इस पैसे से ही सरकार हमें राशन देती है, इन्दिरा आवास देती है, पेंशन देती है, नल लगवाती है, सड़क बनवाती है, आंगनवाड़ी बनवाती है, स्कूल चलाती है… और इसी पैसे से सारे सरकारी कर्मचारियों की तनख्वाह मिलती है… तो ये जो सरकार के काम हैं ये इस सबमें हमारा पैसा ही खर्च होता है…

(जब पैसा मेरा है तो मुझसे पूछते क्यों नही)

लेकिन अब एक बात बताइए कि सरकार के नेता और अपफसरों ने हमसे कभी पूछा कि आपका पैसा, आपके गांव में हम कहां, कैसे, किस काम पर खर्च करें…
ग्रामीण : नहीं… हमसे तो कभी नहीं पूछते…. कभी किसी ने आज तक नहीं पूछा।
कार्यकर्ता: सही बात है…. दिल्ली और पटना में बैठे अधिकारी योजनाएं बनाकर भेज देते हैं और लोक अफसर को दे देते हैं कि जाओ भाई इन्हें गांव में बांट आओ ये अफसर और गांव का मुखिया मिलकर इन योजनाओं को भी खा जाते हैं या अपनों में बांट देते हैं…
अब एक बात बताइए… ये अफसर आपके पैसे से तनख्वाह लेते हैं। लेकिन कभी आकर आपसे कुछ बात पूछते हैं कि फलां योजना लेकर आये हैं… आप बताइए कि इसका लाभ किसको मिलना चाहिए…

ग्रामीण: मुखिया के साथ मिलकर सब तय हो जाता है… जिनके पास पक्के मकान हैं उनको मकान बनाने का पैसा मिल रहा है और, हम गरीबों को कोई कुछ नहीं बताता…

उत्साहजनक रहा है। पांच दिन की इस यात्रा में ही स्वराज अभियान के लिए अनेक नए साथी मिल गए हैं। हालांकि सभी गांवों को एक साथ देखेंगे तो मिला जुला अनुभव रहा है। कई गांवों में तो लगा जैसे स्वराज का विचार सुनते ही लोगों में क्रान्ति की लहर दौड़ती है। कई गांवों में पूरी बात सुनने के बाद जब लोगों से पूछा कि अब क्या करने का इरादा है तो लोग ऐसे देखते रहे मानो उन्होंने कुछ सुना ही न हो। लेकिन कुल मिलाकर कहें तो हमें उम्मीद से अधिक सफलता मिली है। - परवीन अमानुल्ला

(ये सरकारी कर्मचारी हमारे सेवक हैं या मालिक)
कार्यकर्ता: सही बात है… और ये आपके गांव में ही नहीं पूरे देश में… साढ़े चार लाख गांवों में ऐसा ही किया जा रहा है… एक और बात बताइए… आपके गांव में सरकारी कर्मचारी कौन कौन से हैं… जैसे टीचर हैं, पंचायत सेवक है… ऐसे और कौन कौन से कर्मचारी हैं जो आपके गांव में काम करते हैं
ग्रामीण: पटवारी है, ए.एन.एम. है, राशन डीलर है, आंगनवाड़ी है,… हफ्ते में एक दिन डॉक्टर का टर्न है… रोज़गार सेवक है… और भी कुछ लोग हैं।
कार्यकर्ता: तो इन सब कर्मचारियों को तनख्वाह हमारे पैसे से मिलती है… और हमारे लिए काम करने के लिए मिलती है… पर ये कर्मचारी कभी हमसे आकर पूछते हैं कि बताओ क्या करें… हमें ये काम करना है, बताओ कैसे करें, कहां करें… और अगर ये अपना काम ठीक से ना करें तो आप इनका कुछ बिगाड़ सकते हैं… किसी के खिलाफ आप कुछ एक्शन ले सकते हैं… कुछ ऐसा तरीका है कि आप इनके खिलाफ एक्शन ले सकें…
ग्रामीण: तरीका तो है… इनकी शिकायत कर सकते हैं… बड़े अफसरों के पास… पर बड़े अफसर भी तो हमारी नहीं सुनते…
कार्यकर्ता: ठीक बात है… आपकी शिकायत पर किसी कर्मचारी के खिलाफ कोई कोई एक्शन नहीं लिया गया होगा…
कार्यकर्ता: तो जब इनको तनख्वाह हमारे पैसे से मिलती है, हमारे लिए काम काम करने के लिए मिलती है फिर ये अगर हमारे हिसाब से काम न करें तो क्या इनकी तनख्वाह काटने का अधिकार हमारे हाथ में नहीं होना चाहिए… क्या इनके खिलाफ एक्शन लेने का अधिकार हमारे गांव के लोगों को नहीं होना चाहिए… मान लीजिए टीचर टाइम पर नहीं आता या ठीक से नहीं पढ़ाता… अगर गांव के लोगों के हाथ में उसकी तनख्वाह काटने की ताकत होती तो क्या हम सारे लोग मिलकर उसकी तनख्वाह नहीं कटवा देते…. अगर राशन की दुकान कैंसिल करने की ताकत हमारे हाथ में होती तो क्या राशन वाला चोरी करता…
ग्रामीण: हमारे हाथ में ताकत होती तो हम उसे चोरी क्यों करने देते… उसे कहते कि भई सब गरीबों को राशन बांटों….
कार्यकर्ता: एकदम सही बात है…. यही बात हम कहने आए हैं कि अभी आपके हाथ में एक्शन लेने की ताकत नहीं है… इसके लिए एक कानून बनाना पड़ेगा, पंचायती राज में सुधार करके इसे ठीक करना पड़ेगा कि- गांव के कर्मचारियों के खिलाफ एक्शन लेने, उनकी तनख्वाह काटने की ताकत सीधी गांव की जनता के हाथ में हो… वे जब चाहें एक साथ बैठकर, खुली बैठक में फैसला ले सकें कि ये आदमी ठीक से काम नहीं कर रहा… इसके खिलाफ ये एक्शन लें…. अगर ऐसी ताकत गांव के लोगों को मिल गई तो गांव में काम करने वाले सारे सरकारी कर्मचारी सुध्र जाएंगे…
…तो अब बताओ कि ऐसा कानून आना चाहिए कि नहीं…

(पंचायती राज कानून में सुधार)
ग्रामीण: बिल्कुल आना चाहिए…
कार्यकर्ता: तो हम ये यात्रा इसी मकसद से निकाल रहे हैं कि गांव गांव में लोग इस बात को समझें और सरकार से ऐसे कानून की मांग करने लगें… इसमें हमें चार चीज़ें मांगनी होंगी…
एक तो- गांव में सरकार द्वारा खर्च होने वाले एक एक पैसे के बारे में गांव के लोग तय करेंगे कि यह किस काम पर, कहां और कैसे खर्च होगा।
दूसरे- गांव गांव में काम करने वाले सारे सरकारी कर्मचारी जैसे अध्यापक, ए.एन.एम आदि, सीधे गांव की जनता के यानि ग्राम सभा के नियन्त्रण में हो। गांव के लोग ग्राम सभा की बैठक में ठीक से काम न करने वाले कर्मचारियों के ऊपर ज़ुर्माना लगाने, तनख्वाह रोकने के फैसले ले सके।
तीसरे- गांव की जनता यानि ग्राम सभा को यह ताकत हो कि बीडीयों जैसे अफसरों को ग्राम सभा की बैठक में आने के लिए आदेश दे सके और उनके लिए ये आदेश मानना ज़रूरी हो।
चौथी बात है कि- राज्य सरकार की कोई भी नीति गांव की जनता से पूछे बिना न बने। बनाने से पहले राज्य सरकार के लिए राज्य की सभी ग्राम सभाओं से मशविरा लेना अनिवार्य हो…
पांचवी और सबसे खास बात ये भी कि- सारे स्थानीय प्राकृतिक संसाधन जैसे नदी, जंगल ज़मीन… सब सीधे गांव की जनता के नियन्त्रण में हों, ग्राम सभा का सीध नियन्त्रण हो और किसी गांव के इलाके में आने वाली ज़मीन का अधिग्रहण बिना ग्राम सभा की मंज़ूरी के सम्भव न हो इसके लिए नियम शर्ते भी ग्राम सभा में ही तय हों।
तो ये मांग लेकर हम स्वराज यात्रा पर निकले हैं… इसके लिए कानून बदलने की ज़रूरत पड़ेगी। लेकिन बड़े पैमाने पर जनान्दोलन चलाए बिना यह नहीं हो सकता। हम सबको इसके लिए कमर कसनी होगी। हमारा अनुरोध् है कि आप सब इस आन्दोलन से जुड़िए…
ग्रामीण : ठीक बात है… हां! सब इससे जुड़ने को तैयार हैं…

(लेकिन अभी क्या कर सकते है)
कार्यकर्ता: बहुत अच्छी बात है कि आप सब इससे जुड़ने को तैयार हैं? लेकिन जब तक कानून नहीं बदले जाते तब तक भी हम अपने गांव में बहुत कुछ कर सकते हैं… पंचायती राज कानून के बारे में आप जानते हैं…
ग्रामीण: जानते हैं, मुखिया का चुनाव होता है
कार्यकर्ता: ठीक बात है… मुखिया की ज़िम्मेदारी है कि साल में कम से कम चार बार गांव की जनता की बैठक बुलाए… इस बैठक को ग्राम सभा की बैठक या खुली बैठक कहते हैं…. साल में कम से कम चार बैठक बुलवाना तो मुखिया की मजबूरी है… ज़रूरत पड़े तो हरेक महीने, यहां तक हर हफ्रते भी बैठक बुला सकता है… आपके गांव में कभी कोई बैठक होती है….
लोग: कभी नहीं होती… हमको तो कभी कोई बैठक में नहीं बुलाता…
कार्यकर्ता: बिल्कुल नहीं बुलाता होगा… लेकिन अब आप जान लीजिए… कि हरेक गांव में साल में कम से कम चार बैठकें तो मुखिया को बुलानी ही पड़ेंगी… और इन बैठकों में ही तय होगा कि किसको इन्दिरा आवास का घर मिलेगा, किसको पेंशन बंधेगी… किसको बीपीएल मिलेगा… ये सब इन बैठकों में ही तय करना होता है… आपका मुखिया भी कागजों पर ये बैठक करा देता होगा और आपमें से कुछ लोगों के अंगूठे लगाकर खानापूर्ति कर देता होगा…
लोग: ये तो हमको मालूम नहीं… कर देता होगा…
कार्यकर्ता: देखिए ये बैठकें आपकी ज़िन्दगी के लिए बहुत महत्वपूर्ण हैं… और आपके गांव में ही नहीं देश के लगभग सब गांवों में यही हाल है… हम पिछले चार साल से गांव गांव घूम रहे हैं… ज्यादातर गांवों में फर्जी अंगूठे लगा लगा कर बैठकें दिखाई जाती हैं… लेकिन फिर भी देश में करीब डेढ हज़ार गांव ऐसे हैं जहां ये बैठकें हो रही हैं… और ये गांव आज देश में सबसे अच्छे,… सबसे सुन्दर गांव हैं… यहां सबसे अच्छा विकास हो रहा है…

(हिवरे बाज़ार की कहानी)
एक गांव में हम गए तो वहां तो पिछले बीस साल से सारे फैसले ग्राम सभा बैठकों में ही हो रहे हैं…
इस गांव में लोग 20 साल पहले आपस में इतना लड़ते थे कि हफ्ते में एक बार पुलिस का आना तो आम बात थी। हर घर में शराब बनती थी। आसपास के इलाके में पूरा गांव बदनाम था। लेकिन 20 साल पहले यहां के 10-15 युवाओं ने मिलकर तय किया कि अब हमारे गांव में ऐसा नहीं होगा। इसकें लिए उन्होंने ग्राम सभा का रास्ता चुना। उन्होंने अपने में से एक युवक को मिलकर मुखिया बनवाया और इसके बाद गांव का हर फैसला ग्राम सभा में लेना शुरू कर दिया गया।
पिछले 20 साल से वहां हर महीने कम से कम एक ग्राम सभा होती है… ज़रूरत पड़ने पर हफ्ते में भी ग्राम सभा होती है… इन ग्राम सभाओं के चलते ही आज यह गांव देश का सबसे अच्छा गांव बन गया है।
20 साल में इस गांव की काया पलट गई है। 1989 में वहां प्रति व्यक्ति आय मात्रा 840/- प्रति वर्ष थी। अब वह बढ़कर 28000/- हो गई है। 1989 में वहां 90 प्रतिशत लोग गरीबी रेखा के नीचे थे। अब केवल तीन परिवार गरीबी रेखा के नीचे हैं। अब पिछले पांच वर्षों में एक भी अपराध् नहीं हुआ है। पहले लोग झुिग्गयों में रहते थे। अब सबके पक्के मकान हैं। हर मकान में बिजली और पानी है। गांव में खूबसूरत सड़कें हैं, बढ़िया अस्पताल है, बढ़िया स्कूल है. यह चमत्कार इसलिए हुआ क्योंकि यहां हर फैसला खुली बैठक में यानि कि ग्राम सभा में सीधे जनता लेती है।
और ये चमत्कार आपके गांव में भी हो सकता है… आप में से अगर 10 युवा भी दिल पर हाथ रखकर ये सोचें कि मैं अपने गांव से प्यार करता हूं और अपने गांव के लिए कुछ करना मेरा फर्ज है तो आपके गांव में भी ग्राम सभाएं शुरू हो सकती है।
अगर आपके गांव में भी ग्राम सभा बैठकें होने लगें तो ये गांव भी हिवरे बाज़ार की तरह बन सकता है। आज के कानून के हिसाब से भी… अगर ग्राम सभा बैठकें करवाने लगें तो हालात काफी सुधर सकते हैं…
तो हम यहां कुल मिलाकर दो बातें रख रहे हैं… एक तो नया कानून लाने की जिसके हिसाब से सरकार का सारा काम, पैसा और कर्मचारी सीधे सीधे गांव की जनता के नियन्त्रण में होना चाहिए. .. दूसरी बात ये कि आप अपने गांव में ग्राम सभा की बैठकों की शुरुआत कराइए…. बिना ग्राम सभा की बैठक के आपके गांव में कुछ काम न हो… पहली बात नया कानून बनाने की… कानून बनना तो अभी दूर की बात है, इसके लिए आन्दोलन करना पडे़गा… पर ग्राम सभा का कानून तो पहले से ही बना हुआ है… इसका पालन कराना हमारे लिए आज ही से सम्भव है…
लोग: लेकिन हमारे यहां तो लोगों में एकता ही नहीं है…

(एक्शन प्लान)
कार्यकर्ता: आप ठीक कह रहे हैं… लेकिन अब हमारे सामने दो-तीन ही विकल्प हैं… या तो भगवान एक दिन हमारे गांव के तमाम लोगों आशीर्वाद दे दे कि भई आज से तुम एकता में जियोगे… तो तब तक का इन्तज़ार किया जाए. इस तरह हम अगले 100 साल, हज़ार साल इन्तज़ार करते रहें… या फिर हम लोगों की बैठके करवाना शुरू करें… शुरू में थोड़े बहुत मतभेद सामने आएंगे लेकिन जब ग्राम सभाओं के नतीज़े निकलने लगेंगे तो धीरे धीरे सब एक होने लगेंगे… एक और रास्ता ये भी है कि दिल्ली या पटना में कभी कोई महान नेता ऐसा हो जाए जो हमारे गांव की सुधार दे और हमारे गांव में ग्राम सभा करवाने के लिए व्यवस्था कर दे… तो अब बताईए आप कौन सा रास्ता चुनना चाहते हैं… इन्तज़ार का या खुद कुछ करने का…
लोग : खुद ही कुछ करना पड़ेगा वरना तो सुधार नहीं होने वाला…
कार्यकर्ता : एकदम ठीक कहा आपने… अब इतनी बात जानने सुनने के बाद बताईए कि यहां मौजूद लोगों में से खासकर युवाओं में से कौन कौन लोग सोचते हैं कि उन्हें कुछ करना है, किसका मन बना है कि अपनी ज़िम्मेदारी निभाई जाए…
(थोड़ी बहुत चुप्पी के बाद कम से कम 10-15 लोग आगे आते हैं और अपना नाम आदि लिखवाते है)
बिख्तयारपुर प्रखण्ड के सैदपुर गांव में तो लोगों ने आगे आकर शपथ ली कि वे अब ग्राम सभा पर ही काम करेंगे।
इस तरह हरेक गांव से 10-15 युवाओं का समूह बनता जा रहा है। परवीन अमानुल्लाह का कहना है कि एक बार यात्रा पूरी होने के बाद इन युवाओं को पटना में बुलाकर एक दिन के लिए इन्हें और गहराई से स्वराज के बारे में समझाया जाएगा। और तब इनके साथ मिलकर आस पास के अन्य गांवों में भी स्वराज अभियान चलाया जाएगा।

Monday, February 15, 2010

सूचना का अधिकार पर सरकार गंभीर नहीं


पटना बिहार का अधिकार मंच की संयोजिका परवीन अमानुल्लाह ने कहा कि सरकार सूचना का अधिकार पर गंभीर नहीं है। उन्होंने बताया कि कई मामलों में बगैर सूचना दिलवाये ही वाद समाप्ति का आदेश आयोग द्वारा दे दिया जाता है। लोक सूचना पदाधिकारी के इस आश्वासन पर कि वे सूचना भेज देंगे, आयोग द्वारा वाद समाप्त कर दिये जाने से लोक सूचना पदाधिकारी निर्भीक हो जाते हैं एवं वाद समाप्त होने के बाद वे सूचना नहीं देते। वह समय कभी नहीं आता जब वे सूचना दें। उन्होंने बताया कि मंच ने आयोग एवं सरकार से पूर्व में कई बार पत्राचार कर अधिनियिम की धारा-4 के प्रावधानों को स्वत: लागू कर वर्णित सूचनाओं को अक्टूबर-2005 तक सार्वजनिक करना था। लेकिन सरकार अथवा आयोग की इस ओर से इस पर कोई पहल नहीं की गई। उन्होंने मांग की कि जब तक धारा-4 का क्रियान्वयन पूर्णरूपेण नहीं करा दिया जाता तब तक नागरिकों को इसके अंतर्गत मांगी गई सूचनाएं मुफ्त उपलब्ध कराई जाए। उन्होंने सरकार से इसके अलावा पिछले 3 माह में आयोग में जो वाद समाप्त कर दिये गए, उनकी जांच कर जनता को पूर्ण सूचना दिलवाने की मांग की।

नहीं मिल रही है जनता को दफ्तरों से सूचना

Feb 15/02/2010
पटना बिहार सूचना का अधिकार मंच ने रविवार को गांधी संग्रहालय में एक बैठक का आयोजन किया, जिसमें सूचना का अधिकार अधिनियम 2005 को विधिवत कैसे शुरू किया जाए इस पर चर्चा हुई। मंच की संयोजिका परवीन अमानुल्लाह ने बताया कि विभिन्न सरकारी कार्यालय एवं विभागों से जनता को सूचना नहीं मिल रही है। इस स्थिति को सरकार व्यापक ढंग से सुधारे। उन्होंने कहा कि ऐसे लोगों की एक लंबी सूची है, जिसे बिहार सूचना का अधिकार मंच ने सरकार के हवाले की थी। सूचना के अधिकार का प्रयोग करने वालों को प्रताड़ित किया गया, मारा पीटा गया, अपराधिक मामले लगाए गए, लेकिन सरकार ने इस पर कोई कार्रवाई आज तक नहीं की। उन्होंने बताया कि सूचना का अधिनियम 2005 के नियम में बिहार में जो संशोधन 2009 में किया गया है, वह सूचना का अधिकार अधिनियम 2005 की उद्देशिका का विरोधी है, अमानवीय है और हमारे संविधान के मौलिक अधिकार का हनन करता है। ऐसे संशोधन को वापस लिया जाए। बैठक में इसके अलावे कई ज्वलंत मुद्दे पर चर्चा हुई।

Tuesday, December 22, 2009

Parveen Amanullah, co-ordinator of the Bihar Right to Information Manch

THESE headlines in UP newspapers show that the power of governance has at last reached the doorstep of the common man, never mind that it has taken six decades. The enactment of the Right to Information Act, 2005 was a truly historic event, giving citizens the right to access information “held by or under control of” the public authorities. The Act sought to establish transparency as the norm and secrecy as an exception in the working of every public authority. This will contain corruption and ensure accountability to the governed.
However, the RTI is also being put to use by various people to serve their own ends. In the recent Madhya Pradesh Assembly elections, Opposition politicians, especially of the Congress, resorted to the RTI to gather information about the BJP Ministers for use in the poll campaign. Members of the Bahujan Samaj Party and Samajwadi Party called it an innovative idea, which they too would use in the next elections.Congresswoman Jamuna Devi, Leader of the Opposition in the Assembly, took the lead in employing RTI to collect information about the omissions and commissions of the BJP Ministers. She called RTI a powerful weapon to expose the corruption and false promises of the ruling BJP. The Congress splashed the information gathered through RTI in election advertisements and posters. The scenario repeated itself in UP where the Congress created an RTI cell under the dynamic Shailendra Singh, former provincial police services officer, and started a campaign against the Mayawati government. This helped the Congress gain much momentum in the Parliamentary election, winning 21 seats.
Chief Information Commissioner Wajahat Habibullah attributed the tendency among officials to conceal information to the British Raj mindset. Over 50 countries now have freedom of information laws and another 15-20 are actively considering adopting one.
These instances have shown that till now the people lacked a means to haul up the administration and political leaders. The RTI has filled this gap. It is also serving to educate the common man about his rights. Initiative is also being shown by those on the other side of the divide. A call centre in Patna, aptly named Jankari, helps the rural population of Bihar to file RTI applications and get information from all government departments in Bihar. Members of the public can submit RTI applications by dialling 155311. The call centre executives draft the applications and send them to the authorities.
  • Bureaucracy in UP shaken over SIC directive to disclose moveable and immoveable assets of its members on its website within six weeks
  • UP Chief Secretary summoned and slammed for not implementing RTI.
  • In response to an RTI plea exposed 36 ex-MPs are yet to vacate bungalows.
  • NHRC seeks report on raw deal to RTI activist.
  • 60 marble elephants at the Ambedkar Memorial constructed at Lucknow by Mayawati government are worth Rs 52 crore, exposed in an RTI reply

DURING the two years of its existence, the call centre has received 22,600 calls of which 7,070 were to submit applications under RTI, 3016 for filing first appeal and 1,400 for filing second appeals before the State Information Commission, according to Amir Subhani, Principal Secretary, Personnel. The number of applications from rural areas was less than the number from Patna. Subhani admitted that this was due to not enough effort being made to disseminate awareness about the programme and also the poor connectivity of BSNL landlines. Remedial steps are being taken.
Bihar is the first state to implement the Jankari project, the brainchild of Chief Minister Nitish Kumar. The state won the national e-governance award for 2008-09 for this initiative.
In UP, RTI has also been in the news for other reasons. The state’s Chief Information Commissioner (CIC), MA Khan, was suspended by the Governor for alleged misconduct and irregularities in some appointments. Then, the file recommending Ram Kumar, a controversial retired IAS officer, for the CIC’s post was returned by Governor TV Rajeswar who asked the state government to reconsider its decision. Rajeswar said Ram Kumar’s appointment would go against the spirit of a Constitutional post. He is the only IAS officer in UP whose services were terminated on charges of corruption and possession of disproportionate assets. But the new CIC, Ranjeet Singh Pankaj, is also a tainted bureaucrat and a PIL against his appointment has been filed with the Lucknow bench of Allahabad High Court.
The Mayawati government also tried to eliminate 14 subjects from RTI jurisdiction, including appointment of the Governor and Ministers, and the latter’s code of conduct. After strong protests from all corners, the decision was rescinded. Now the State Information Commission is inundated with appeals and complaints. Till March 2009 it had admitted 67,346 appeals and complaints, including 32,025 cases filed in 2008. Information Commissioner Gyanendra Sharma points out that people approach the SIC in frustration over the indifferent attitude of government departments.
A call centre in Patna, aptly named Jankari, helps the rural population of Bihar to file RTI applications and get information from all government departments in the state
Yet, lack of publicity remains a major loophole in the effective implementation of this Act. A recent survey conducted in 10 states by a group of voluntary bodies claimed that over a fourth of government officials designated for disseminating information under the RTI Act were unaware of their duty.
An RTI application filed by activist Subhash Chandra Agrawal revealed that the Centre spent a paltry Rs 2 lakh on publicity about the RTI Act last year through DAVP/ Prasar Bharti. It was also revealed that there were no plans to spend the Rs 300 crore allotted earlier for the purpose. Money has been spent on photo advertisements for publicity of political rulers.
At a recent two-day RTI workshop in Lucknow, the UP Chief Secretary joined rights activists in the demand for the RTI Act to be given more teeth and stated that the government was ready to provide any information. “I have advised all government departments to keep their doors open to anyone seeking information under the RTI Act, which is a law to protect the interests of common people. People in government must realize that they will also be like ordinary citizens once they retire. Therefore they must put themselves in the shoes of the common man while dealing with RTI requests,” he said.
Chief Information Commissioner Wajahat Habibullah, who was the chief guest at the workshop, attributed the tendency among officials to conceal information to the British Raj mindset. Over 50 countries now have freedom of information laws and another 15-20 are actively considering adopting one, he pointed out.
Unfortunately, despite RTI’s successes, there are innumerable blots. In Bihar, bureaucrats have learnt to respond to RTI with harassment. Purushottam Prasad of Nalanda district had sought details of land reforms, and was implicated in a false case of theft of kerosene drums. Retired Armyman Chandradeep Singh spent 23 days in jail, charged with attempting to rape a woman in Maner under Patna district. He had sought information about the murders of his son and daughter from the police.
ACCORDING to Parveen Amanullah, co-ordinator of the Bihar Right to Information Manch, government officials are known to lodge false cases against those who dare to expose corruption. There are at least 14 instances the Manch knows about. State Information Commissioner PN Narayanan has ordered an inquiry. Dr Sachin Agrawal, an RTI activist from UP, knows of the harassment of a farmer, Bajrang Bahadur Singh, who filed an RTI on land reforms and allotment in Jaunpur district in 2007. He was reportedly thrashed by the then District Magistrate, Anurag Yadav, in his office. Later, the harassment was exposed and a case is pending in Allahabad High Court. The farmer cycles 90 km to attend hearings in Allahabad High Court. His appeal is also pending with the State Information Commission.
“A close study of such cases would probably show that the corrupt bureaucracy is bent on rendering the RTI Act useless,” adds Agrawal, a lecturer in Jaunpur University.

World Bank arm moots mantra for Bihar’s development

December 21st, 2009 - 2:07 pm ICT by IAN

Patna, Dec 21 (IANS) A World Bank arm has suggested strengthening of the monitoring process in Bihar government’s functioning and transparency in development works for the state’s growth.
“Strengthening the monitoring process in government functioning and more transparency in the development measures will pave way for a developed Bihar,” said World Bank Institute Vice-President Sanjay Pradhan.

Pradhan was addressing a session in a two-day conclave that concluded Sunday night. The World Bank Institute is the learning, training and capacity building arm of the World Bank.

Pradhan said lack of monitoring in government functioning and less transparency has been a stumbling block in the state’s development.

“There was a need to strengthen the vigilance bureau and the Right to Information (RTI) to make headway for development of Bihar. People can use RTI to get any kind of information. The RTI has provided a rare opportunity to people to receive information,” he said.

He said the RTI was yet to be implemented at grassroot level and its benefit is yet to reach the marginalised sections of society.

Pradhan further said the World Bank was committed to pump $150 million for development of Bihar.

He said Bihar is poised for development as it recorded a growth rate of 7.7 percent during 2005-08.

Pradhan hails from Patna and was one of the over 100 professionals from Bihar who made a mark in various fields at home and abroad and attended the conclave.



Ghosts in their cupboards

Ghosts in their cupboards

The right to information campaign has unnerved the local bureaucracy in India. No wonder, they are hatching dubious conspiracies to block the dogged ghostbusters
Sadiq Naqvi Delhi

The worst of fears on the right to information (RTI) campaign have come true. The rules of the RTI Act stands amended in Bihar. Now, public information officers (PIO) have the power to split the information sought by people so that the financial burden on the applicant can increase. For instance, a question can be broken into different parts. The applicants will thus have to shell out an extra Rs 10 for each question asked. That is, the local bureaucracy has found a way to nip the RTI bud at the first point of entry itself.

The worries don't end here. The information seekers who belong to the economically weaker sections - a sizeable number - will not be able to avail of more than 10 pages of information free of cost. It is this section, despite scores of welfare schemes over several decades, which is still reeling under acute poverty. "The RTI is a weapon for the oppressed sections of the Indian society," says Information Commissioner ML Sharma. Hence, it is this section which should be empowered through this Act, so that they can check how the funds marked for them are being siphoned off by an organised nexus of officials and local mafia for years.

Multiple problems continue to hamper the speedy implementation of the law. Most governments seem disinterested. The fiasco in Bihar happened because the central government has not been able to frame basic rules that would govern the RTI all across the country. "We have time and again drafted and submitted rules to the concerned authorities," says Aruna Roy, noted RTI activist.

Hardnews
was informed by a senior official in the Central Information Commission that the government does not want to tamper with the federal character of the law where state governments and other institutions have the power to frame their own rules.

A government-sponsored study, recently done by Price WaterhouseCoopers, found that only 25 per cent of the people were satisfied with the information provided to them under the RTI. When one such petitioner approached the Supreme Court for information of all cases related to terrorism and fundamentalism, he was told that the information is there on the internet. "So how many in this country have access to the internet," asked an activist. It is a fact that the majority of people in India are neither computer literate, nor do they have access to computer networks.

When the petitioner filed the first appeal, he alleged that the first appellate authority of the Supreme Court asked him to explain in English which he apparently had to do through a friend. The petitioner than lodged a complaint with the law minister, the chief justice of India and the Central Information Commissioner. The law ministry reportedly did not act. Later, again, a RTI petition was filed to know the status of the complaint; but no information was given by the office of the law minister.

The archaic system of recording everything in paper files has made the task of maintaining records arduous and cumbersome. Not enough has been done to convert them to an electronic form which can be accessed with a single click. This is used by the bureaucracy to block information since the files have to be dug out. "There is an urgent need to improve the record management system in the country. There is a need for a task force to make the records digital, starting from the lower most villages and block level," feels Medha Patkar, leading social activist.

Experts feel that a RTI module must be incorporated into the training process of all government employees. The PIOs suffer from lack of basic knowledge. Also, lack of incentives demotivates them. Activists argue that dynamic programmes and ideas should be put in place to raise awareness levels. A mix of traditional and modern methods must be envisaged so that even the most deprived sections can be targeted.

Recently, a lot of noise has been made about the proposed amendments to the RTI Act. A strong lobby within the bureaucracy wants to exempt file notings from being disclosed. It is these notings which reveal the entire decision-making process and who are the decision makers. In a democratic set up, people have the right to know about the decision-making process.

This facet of the RTI Act has been facing stiff opposition from bureaucrats and ministers who do not want to be exposed. It has also strengthened the hands of honest officers, since the corrupt ones fear that they will be publicly exposed. "It is the higher bureaucracy which is most corrupt," one information commissioner told Hardnews. Activists believe that file notings is the essence of RTI.

Also, there is much lobbying on the issue of frivolous or vexatious applications. Experts say that had the government proactively disclosed all information under section 4, the problem of frivolous applications would not have arisen. What the government terms as frivolous is actually the information which should be voluntarily put out. Several times, information is concealed under the pretext of it being a State secret.

The working of the various information commissions is under a cloud. The pendency level of appeals has taken gigantic proportions, even while some state information commissions like that of Gujarat and Rajasthan have just one information commissioner. There are reports that information commissioners are not serious, and the information commission has become a dumping ground of ex-bureaucrats.

Says Arvind Kejriwal, RTI activist, "A bureaucrat or a non-bureaucrat is not a problem. But the transparency record of the official must be taken into account before entrusting him with such responsibilities." There are also reports of public authorities not complying with the orders issued by information commissioners. The commissioners have failed to penalise the PIOs for their repeated misgivings despite strong, punitive provisions.

Even if the RTI reveals a corrupt practice, there is no mechanism in place to follow up on that and initiate proceedings. Courts take months/years. This leaves ample time for erring officials to sanitise records. Now, there are demands of a national grievance redressal commission for swift action on such cases of corruption.

The RTI Act, born out of a sustained movement by grassroots activists, has come a long way in its brief journey of four years. The awareness is steadily increasing, although the government is not a hero in this success story. The situation of RTI Act in the country, noted activists like Aruna Roy and Shekhar Singh argue, is better than other countries, including South Africa, the UK and Mexico, where similar acts exist. Reportedly, in South Africa, only 22 per cent of the applicants get the information they want.

"A kind of grievance redressal mechanism for petty complaints has thus developed. The stipulated time period of 30 days for providing information is sometimes looked upon as 30 days for solving the problems of the applicant," says Shekhar Singh.

An application under the RTI Act has also become a source of information for higher officials who otherwise would normally not inquire into what their sub-ordinates are doing. Now, the task of disseminating information is entrusted on a high-ranking official.

The judges of the Supreme Court have to declare their assets. The chief minister of Karnataka, BS Yeddyuruppa was forced to announce that he will not be spending a crazy amount of money in renovating his house. And at last, some long kept secrets, held close to their hearts by possessive bureaucrats and politicians, are now coming out of the closets.

Saturday, December 19, 2009

BIHAR RTI ACT UESERS’ SATI SFACTION ATAN ALL.TIME LOW

(i) Since assumption of office by the new Chief Information Commissioner

of State Information Commission on 22.10.2009 in Bihar citizens are facing an all- time low in procurement of their information.

(ii) Instead of providing access to information to citizens in order to promote transparency. Accountability and to fight corruption. Commission is using all Kinds of improper means to deny information to public.


(iii) Citizens already apprehensive in present of commissioner are made to read ‘definition’ of RTI Act during the hearing and then told that information that they seek is not ‘givable’

(iv) Commission is closing pending appeal cases without actually providing information to the public such as when P.I.O untruthfully says he ‘will’ provide information or when appellant is absent.

(v) Overall citizens’ satisfaction with Commission. Which was already low at 31% according to recent survey by public Cause Research Foundation has now plunged further to some where between 0-5% in the last 2 months.

(vi) Although penalty on public information officers (P.I.O) is strictly to be imposed by Commission, they are not imposing any penalty on P. I. Os and requests by citizens to impose penalty are thrown into the dustbin in complete disregard of RTI Act.

(vii) Citizens of Bihar request Government of Bihar to hold an enquiry and social audit, into all such violations against the Act by very people who must protect it, and restore sanctity of Act and sanity into implementation of Act.

(viii) BRIT Manch’s requests to inspect records of the Commission are being met with delays.


(ix) BRTI Manch regrets to say that appointment of Commission seems to have been deliberately done from a section of society who are well- rehearsed, by virtue of their career to keep information from the Public.

parveen Amanullah Convenor,Bihr Right to Information MANCH